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बोगस वोटिंग रोकने के लिए हुई थी वोटर आईडी की शुरूआत, कानूनी मान्यता में लग गए 30 साल

नई दिल्लीदेश में चुनाव सुधारों के तहत वोटर आईडी का इस्तेमाल इतना आसान नहीं था. वैसे तो वोटर आईडी का स्वरुप 1960 में कोलकाता के उपचुनावों में ही सामने आ चुका था, लेकिन इसे कानूनी रूप लेने में 30 साल से भी अधिक का समय लगा. 1990 में मुख्य चुनाव आयुक्त बने टीएन शेषन की मजबूत पैरवी की वजह से आज हर मतदाता के हाथ में वोटर आईडी आ चुकी है.

आखिरकार 1990 में जब देश के मुख्य चुनाव आयुक्त टीएन शेषन बने तो उन्होंने देश को इसका महत्व बताया और फिर 1992 में संसद में 1958 के लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम में संशोधन किया गया और इस पहचान पत्र को कानूनी मान्यता मिल सकी. इसके बाद साल 1993 में पहली बार चुनाव आयोग ने मतदाताओं के लिए आधिकारिक तौर पर इस पहचान पत्र को जारी करना शुरू किया. आइए, इस कहानी में इसी वोटर आईडी के सफर को जानने और समझने की कोशिश करते हैं.

मतदाताओं की पहचान बड़ी चुनौती

देश में जब पहली बार चुनाव हुए तो चुनाव आयोग को कई सारी चुनौतियों का सामना करना पड़ा था. सबसे बड़ी चुनौती मतदाता लिस्ट बनाने और इस लिस्ट के मुताबिक मतदान कराने की थी. दरअसल इस लिस्ट में कई महिला मतदाताओं ने अपना नाम ‘फलां बच्चे की मां’ या ‘फलां व्यक्ति की जोरू’ लिखाया था. ऐसे में खूब बोगस वोटिंग हुई थी. इसे रोकने के लिए चुनाव आयोग ने दूसरे लोकसभा चुनाव में काफी प्रयास किए, लेकिन कोई खास सफलता नहीं मिली तो तत्कालीन मुख्य चुनाव आयुक्त सुकुमार सेन ने स्पेशल वोटर आईडी बनाने की योजना बनाई.

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