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Dussehra 2021: यहां खलनायक नहीं है रावण, नहीं होता दहन, जानें सालों पुरानी परंपरा के रोचक तथ्य

इटावा। (Dussehra 2021) देश भर में आयोजित रामलीलाओं मे खलनायक की भूमिका नजर आने वाले रावण को उत्तर प्रदेश में इटावा के जसवंतनगर में संकट मोचक की भूमिका में पूजा जाता है। यहां रामलीला के समापन में रावण के पुतले को दहन करने के बजाय उसकी लकड़ियों को घर ले जा कर रखा जाता है ताकि साल भर उनके घर में विघ्न बाधा उत्पन्न न हो सके।

पूजा के अलावा उतारी जाती है रावण की आरती

(Dussehra 2021) जसवंतनगर मे रावण की ना केवल पूजा की जाती है बल्कि पूरे शहर भर मे रावण की आरती उतारी जाती है सिर्फ इतना ही नही रावण के पुतले को जलाया नहीं जाता। लोग पुतले की लकड़ियों को अपने अपने घरों मे ले जा करके रखते है ताकि वे साल भर हर संकट से दूर रह सके । (Dussehra 2021) कुल मिला कर कहा जा सकता है कि रावण संकट मोचक की भूमिका निभाता चला आया है आज तक जसवंतनगर मे रामलीला के वक्त भारी हुजुम के बावजूद भी कोई फसाद ना होना इस बात का प्रत्यक्ष प्रमाण है।

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यूनेस्को की सूची में रामलीला को दी गई जगह

मान्यता है कि दुनिया भर मे इस तरह की रामलीला कही भी नही होती है,इसी कारण साल 2005 में यूनेस्को की ओर से रामलीलाओ के बारे जारी की गई रिर्पाेट मे भी इस रामलीला को जगह दी जा चुकी है,160 साल से अधिक का वक्त बीत चुकी इस रामलीला का आयोजन दक्षिण भारतीय तर्ज पर मुखौटों को लगाकर खुले मैदान मे किया जाता है । त्रिडिनाड की शोधार्थी इंद्राणी रामप्रसाद करीब 400 से अधिक रामलीलाओ पर शोध कर चुकी है लेकिन उनको जसवंतनगर जैसी होने वाली रामलीला कही पर भी देखने को नही मिली है।

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1855 मे हुई थी रामलीला की शुरुआत

जानकार बताते है कि रामलीला की शुरुआत यहा 1855 मे हुई थी लेकिन 1857 के ग़दर ने इसको रोका फिर 1859 से यह लगातार जारी है। रामलीला के प्रबंधक अजेंद्र गौर का कहना है कि यहा रावण, मेघनाथ, कुम्भकरण ताम्बे, पीतल और लोह धातु से निर्मित मुखौटे पहन कर मैदान में लीलाएं करते हैं। शिव जी के त्रिपुंड का टीका भी इनके चेहरे पर लगा हुआ होता है । जसवंतनगर के रामलीला मैदान में रावण का लगभग 15 फुट ऊंचा रावण का पुतला नवरात्र के सप्तमी को लग जाता है। दशहरे वाले दिन रावण की पूरे शहर में आरती उतार कर पूजा की जाती है और जलाने की बजाय रावण के पुतले को मार मारकर उसके टुकड़े कर दिये जाते हैं और फिर वहां मौजूद लोग रावण के उन टुकड़ों को उठाकर घर ले जाते हैं । जसवंतनगर मे रावण की तेरहवीं भी की जाती है। दशहरा पर जब रावण अपनी सेना के साथ युद्ध करने को निकलता है तब यहाँ उसकी धूप-कपूर से आरती होती है और जय-जयकार भी होती है। दशहरा के दिन शाम से ही राम और रावण के बीच युद्ध शुरू हो जाता है जो कि डोलों पर सवार होकर लड़ा जाता है। रात दस बजे के आसपास पंचक मुहूर्त में रावण के स्वरुप का वध होता हैं पुतला नीचे गिर जाता है । एक और खास बात यहाँ देखने को मिलती है जब लोग पुतले की बांस की खप्पची, कपड़े और उसके अंदर के अन्य सामान नोंच नोंच कर घर ले जाते है । उन लोगों का मानना है कि घर में इन लकड़ियों और सामान को रखने से भूत-प्रेत का प्रकोप नहीं होता।

जमीनी रामलीला के पात्रों से लेकर उनकी वेशभूषा तक आकर्षक का केंद्र

विश्व धरोहर में शामिल जमीनी रामलीला के पात्रों से लेकर उनकी वेशभूषा तक सभी के लिए आकर्षक का केन्द्र होती है । भाव भंगमाओ के साथ प्रदर्शित होने वाली देश की एकमात्र अनूठी रामलीला में कलाकारों द्वारा पहने जाने वाले मुखौटे प्राचीन तथा देखने में अत्यंत आकर्षक प्रतीत होते हैं । इनमें रावण का मुखौटा सबसे बड़ा होता है तथा उसमें दस सिर जुड़े होते हैं। ये मुखौटे विभिन्न धातुओं के बने होते हैं तथा इन्हें लगा कर पात्र मैदान में युद्घ लीला का प्रदर्शन करते है । इनकी विशेष बात यह है कि इन्हें धातुओं से निर्मित किया जाता है तथा इनको प्राकृतिक रंगों से रंगा गया है। सैकड़ों वर्षों बाद भी इनकी चमक और इनका आकर्षण लोगों को आकर्षित करता है।

रामलीला में कलाकारों के मुखौटे प्राचीन तथा देखने में अत्यंत आकर्षक

रामलीला कमेटी के सदस्य अनुराग गुप्ता का कहना है कि विश्व धरोहर में शामिल जमीनी रामलीला के पात्रों से लेकर उनकी वेशभूषा तक सभी के लिए आकर्षक का केन्द्र होती है। भाव भंगमाओ के साथ प्रदर्शित होने वाली देश की एकमात्र अनूठी रामलीला में कलाकारों द्वारा पहने जाने वाले मुखौटे प्राचीन तथा देखने में अत्यंत आकर्षक प्रतीत होते हैं । इनमें रावण का मुखौटा सबसे बड़ा होता है तथा उसमें दस सिर जुड़े होते हैं। इनकी विशेष बात यह है कि इन्हें धातुओं से निर्मित किया जाता है तथा इनको प्राकृतिक रंगों से रंगा गया है। सैकड़ों वर्षों बाद भी इनकी चमक और इनका आकर्षण लोगों को आकर्षित करता है ।

रामलीला समिति के अध्यक्ष ने कही ये बात

रामलीला समिति के अध्यक्ष राजीव गुप्ता का कहना है कि यहां की रामलीला पहले सिर्फ दिन हुआ करती है लेकिन जैसे प्रकाश का इंतजाम बेहतर होता गया तो इसको रात को भी कराया जाने लगा है । यह हमारे के लिए सबसे बडी खुशी की बात यह है कि यहॉ की रामलीला को यूनेस्को की रिर्पाेट मे जगह मिली हुई है । उनके पूर्वज सौराष्ट्र के रहने वाले थे लेकिन आजादी से पहले आये संकट के चलते भाग कर यहा तक पहुंचे फिर यही के हो लिए उसके बाद रामलीला की शुरूआत हुई ।

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