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बस्तर दशहरा: रावण दहन नहीं, 600 साल पुरानी ‘रथ चोरी’ की अनोखी परंपरा निभाई गई

बस्तर। देशभर में जहां विजयदशमी पर रावण दहन की परंपरा निभाई जाती है, वहीं छत्तीसगढ़ का बस्तर क्षेत्र अपनी अलग पहचान रखता है। यहां दशहरा पर्व ‘भीतर रैनी’ नामक विशेष रस्म के लिए प्रसिद्ध है। गुरुवार और शुक्रवार की आधी रात को यह परंपरा बड़े उत्साह और धूमधाम से निभाई गई।

इतिहास के अनुसार, बस्तर क्षेत्र को कभी रावण की बहन शूर्पणखा का नगर माना जाता था। इसी कारण यहां रावण दहन नहीं किया जाता। इसकी जगह देवी मां दंतेश्वरी की पूजा-अर्चना कर शांति और सद्भाव का संदेश दिया जाता है। यही बस्तर दशहरे की सबसे अनोखी विशेषता है।

इस परंपरा के तहत आठ चक्कों वाला विशाल विजय रथ तैयार किया जाता है। रथ पर मां दंतेश्वरी का छत्र और तलवार रखी जाती है। आधी रात को आदिवासी समुदाय पारंपरिक वाद्य-यंत्रों की धुन पर नृत्य करते हुए इस रथ को खींचता है। इसके बाद ‘रथ चोरी’ की रस्म निभाई जाती है, जिसमें रथ को एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाया जाता है। इसे शक्ति, साहस और एकजुटता का प्रतीक माना जाता है।

600 साल से अधिक पुरानी इस परंपरा में हजारों लोग शामिल होते हैं और पूरा माहौल धार्मिक उत्साह और भक्ति से भर उठता है। बस्तर दशहरा न केवल धार्मिक आस्था का पर्व है, बल्कि यह आदिवासी संस्कृति, सामूहिकता और लोक जीवन का अद्भुत संगम भी है। यही वजह है कि इसे देखने देश-विदेश से भी लोग बस्तर पहुंचते हैं।

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